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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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कथा साहित्य

रणविजय सिंह सत्यकेतु

जनता की जागीर

प्रधान जी खफा-खफा से घूम रहे थे गाँव की गलियों में. तोले-पुरवों में जाकर हाथ जोडकर वोट तो माँग रहे थे और गाँववाले हामी भी भर रहे थे लेकिन उनको यकीन नहीं हो रहा था की लोग उनके पक्श में मतदान करेंगे. दुहाई तो वो लगातार दे रहे थे पिछले पांच साल में किए गए कामों का, लेकिन उनके भीतर बैठा डर उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था. सच तो यह है कि उनहोंने पांच साल में कोई कायदे का काम ही नहीं कराया था. गाँव के कुछ दबंग किस्म के लोगों की आवाभगत कर बाक़ी जनता को ठेंगे पर रख दिया था.
गाँव के लिए दस हैंडपंप मिले. दो दबंगों के घर लगे, एक अपने आँगन में लगवाया और एक सामुदायिक भवन में लगवा दिया. बाक़ी के छः कहाँ गए या किधर लगे, यह प्रधान जी के अलावा किसी को नहीं पता. पिछली पंचवर्शीय योजन में तीन सीसी रोड बनी लेकिन एक भी रोड पुरवों को गाँव से नहीं जोड़ सकी. हर बरसात में दलित बस्ती गाँव और बाजार से कटी रही. लोग नव और बांस के बेड़े बनकर अपनी दैनिक ज़रूरतों को निबटाते रहे. लेकिन प्रधान जी उधर कभी झांकने भी नहीं गए. ब्लाक के अफसरों को अपनी ओर से कभी जानकारी भी नहीं दी कि दलित बस्ती बरसात में टापू बन जाती है.
मिड डे मील के लिए सालों भर चिकचिक होती रही. कभी राशन नहीं मिलता तो कभी रसोइये के मानदेय का भुगतान नहीं होता. शिकायत करने पर प्रधान जी बजट का रोन रोते और लोगों को ताका सा जवाब देते, “सरकार ने सुविधा दी है तो लूट मचाने की मत सोचो, बच्चों को पढ़ाने भेजते हो स्कूल में, किसी पर अहसान नहीं करते. इसलिए घर से खिला-पिलाकर भेजो. ब्लॉक से राशन-पानी आने में दो-चार दिन इधर-उधर हो ही जाते हैं. इतना भी सब्र नहीं कर सकते तो हम क्या कर सकते हैं. अपने घर का राशन तो नहीं लुटा सकते. ’प्रधानी के दंभ में अपने कहे को राजाज्ञा ही मानते रहे विकास चन्द्र लेकिन जब प्रजा की बारी आयी तो अपने किए का भूत उनका पीछा करने लगा.
विकास जानते हैं कि मिड डे मिल की व्यवस्था हो या हैंडपंप का मामला, सीसी ही किया रोड का निर्माण हो या तालाब की खुदाई की बात, पाँच साल तक सब्र तो लोगों ने ही किया है. व्यस्त वह भी रहे लेकिन निजी कारणों से. अपने कार्यकाल के दूसरे ही बरस विकास का खपरैल तीनमंजिले मकान में बदल गया. तीसरे बरस दरवाजे पर कार आ गयी. साल में दो साडी के लिए निहोरा करने वाली दुलहनिया जेवरों से लड़ गयी. गाय-भैंस की सेवा में दिनभर लगे रहने वाले विकास के बाबूजी झक सफ़ेद धोती कुर्ता और रेशमी कुरता पहने नक्काशीदार छड़ी लेकर गाँव में चौपाल सजाने लगे. छोटा भाई इलाहाबाद में रहकर पढ़ाई करने लगा और बहन के लिए इंजीनियर दूल्हा ले आया गया.
ऐसा नहीं है कि विकास चन्द्र ने दूसरों के लिए कुछ नहीं किया. किया और सोच-समझकर किया. ग्राम पंचायत सदस्यों के घर उपहारों के अच्छत छींट दिए, ग्राम विकास अधिकारी को मोटरसाईकिल खरीदने में मदद कर दी. उनकी पत्नी के लिए होली-दीवाली में साड़ियां भिजवाते रहे. स्कूल के हेडमास्टर को मिड डे मील के राशन में कटौती कर लेने दिया. अतिरिक्त कक्शा भवन के निर्माण की गुणवत्ता पर कभी सवाल नहीं उठाया. गाँव के दबंग और किन्तु-परन्तु करने वालों को अलग-अलग किस्म की मछलियाँ और मुर्गे खिलाकर बहलाए रखा. यही दुःख है कि विकास चन्द्र को कि इतना कुछ किया उनहोंने, लेकिन जब फैसले का वक्त आया तो सारा किया-धरा गोबर हो गया. चारों तरफ ऐसे लोग दिखाई दे रहे हैं जिनके लिए उनहोंने कभी कुछ नहीं किया. प्रधानी के मद में कभी ध्यान ही नहीं दिया कि लोकतन्त्र ने गाँववालों के हाथों में इतनी बड़ी ताकत सौंप दी है जिसका प्रयोग वे करते तो हैं पाँच साल में एक बार लेकिन जब करते हैं तो अच्छे-अच्छों के मिजाज़ को धूल चटा देते हैं.
पिछले चुनव में गोकुल साह को हराकर प्रधानी का ताज पहनने वाले विकास चन्द्र से लोगों को बड़ी उम्मीद थी. पढ़े-लिखे विकास चन्द्र ने वादा भी किया था कि गाँव की काया पलट देंगे. लेकिन विकास ने अपन विकास तो खूब कर लिया, गाँव की काया को मौसम की मार और वक्त के थपेडों से जूझने के लिए छोड़ दिया. इसलिए इस बार के प्रधानी के चुनव में लोगों ने पढ़े-लिखों के कहे पर भरोसा करना ही छोड़ दिया. गाँव के लोग देख-समझ रहे थे कि मनरेगा के पैसों की बरसात में नहाने के लोभ में कई नौकरीशुदा लोग सेवानिवृत्ति लेकर चुनाव मैदान में कूद पड़े हैं तो आईएएस-पीसीएस की तैयारी करने वाले लड़के-लडकियाँ भी प्रधानी में कैरियर तलाशने पहुँच गए हैं. हाथ जोडकर दरवाजे पर खड़े हर उम्मीदवार को हाँ कहने वाले मतदाताओं ने मगर इनमें से किसी को अपने दरवाजे पर पोस्टर नहीं लगाने दिया, मुंडेर का इस्तेमाल झंडा-कटआउट के लिए नहीं करने दिया. इसी से सारे उम्मीदवारों को पसीने छूट रहे थे.
मतदान के दिन प्रधान पद के उम्मीदवारों ने मतदाताओं की आवाभगत में चापलूसी की हदें पार कर दी. कोई गाड़ियों से लोगों को ढो रहा था तो कोई किचन सेट डब्बे बँटवा रहा था. कोई घर-घर साड़ी धोती भिजवा रहा था तो कोई दोस्ती की दुहाई दे रहा था. विकास चन्द्र की कार भोर से ही गाँव की गलियों की ख़ाक छान रही थी. भाई अपनी बाईक से दोस्तों को ढूँढ़ रहा था तो उसके बाबूजी छड़ी लेकर टोला-टोला हंकार लगा रहे थे. इन सबसे अलग एक प्रत्याशी ऎसी थी जो गाँव के सीवान पर सड़क किनारे आँचल फैलाए बैठी मतदान केन्द्र जाने वाले हर मतदाता से आशीश माँग रही थी.
गोकुल साह के हलवाहे बटेसर की बहू ने जब प्रधानी का परचा भरा था तो पढ़े-लिखे लोगों ने मजाक उड़ाया था कि अब तीतर-बटेर भी चुनव लड़ेंगे. विकास चन्द्र ने भी शुरू में इसे हलके में लिया लेकिन अन्दरखाने जो खबर आ रही थी उससे विकास के होश उड़े हुए थे. रात को बटेसर के टोले और दूसरे पुरवों ए आल्हा की धुन पर चुनवी गीत सुनई देते तो संपन्न सुर समर्थ उम्मीदवारों की छाती पर साँप लोट जाते. लेकिन यह लोकतन्त्र का पर्व है, इस उत्सव में शामिल होने का सबको हक है, इस सच के आगे सभी मौन थे. विकास चन्द्र के समर्थकों ने अपने हिसाब से बटेसर और उसकी बहू को धमकाया भी था लेकिन मन का डर गया नहीं. इसीलिए चुनव के दिन समर्थकों ने चिरौरी के घुँघरू पहन लिए थे. लेकिन बीच रास्ते आँचल फैलाए बैठी बटेसर की बहू उन्हें आँखों में कंकड की तरह बराबर चुभ रही थी. इसीलिए उस पर फिकरे भी कसे थे, ‘भीख माँगने से वोट नहीं मिलते. उसके लिए टेंट ढीली करनी होती है. ’ पर नराजगी की जगह बटेसर की बहू ने मुस्कुरा कर जवाब दिया था, ‘जिनके पास टेंट होगी, ढीली तो वही करेंगे. हम तो ठहरे मजूर-हरवाहा, मालिकों से माँगन आँख खोलते ही सीखा है. अब मालिक चाहे गोकुल बाबू हों या गाँव के सारे लोग, हम तो अपनी हैसियत नहीं भूल सकते.
देर शाम तक मतदान होता रहा. फर्ज़ी वोटिंग और गलत मतदाता सूची को लेकर कई बार हो-हल्ला हुआ. तीन-चार दफा सेक्टर और जोनल मजिस्ट्रेट की गाड़ियाँ भी दौड़ीं. पुलिस को एक-दो बार लाठियाँ भी भांजनी पड़ीं लेकिन रात आठ बजे मतदान संपन्न हुआ तो पीठासीन अधिकारी ने ७० प्रतिशत पोलिंग होने का एलान किया. उसके बाद रातें करवटों में बदलती रहीं और दिन गुणा-भाग में. दिमागी कसरत से विकास चन्द्र का विशवास डोल गया था. लेकिन दिल के किसी कोने में उम्मीद की डोर लटकती दिखाई दे रही थी. पैसे और पढ़ाई के बल पर चुनवी जंग जीतने का मंसूबा पाले प्रत्याशी प्रधानी के काल्पनिक घोड़े की सवारी करने में मगन थे. बटेसर की बहू अपनी हालत का आंकलन कर खेतों की निराई में जुट गयी थी.
मतगणना के दिन ब्लॉक में भारी गहमागहमी रही. प्रधान पद के सभी प्रत्याशी अपने समर्थकों के साथ परिसर में डट गए थे. विकास चन्द्र ने भी समर्थकों के साथ कुर्सियाँ डाल ली थीं. मतगणना शुरू हुई. तो प्रत्याशियों की धडकनें बढ़ गयीं. हर कोई अपने भगवान का सुमिरन कर रहा था. पहले राउंड की गणन का ऐलान हुआ. विकास चन्द्र अपने निकटतम प्रतिद्वंदी सोना देवी से डेढ़ सौ मतों से पीछे चल रहे थे. सबके सब हक्के-बक्के. सोना देवी मतलब बटेसर की बहू. विकास चन्द्र को जैसे काठ मार गया. वह सिपहसालारों का मुँह ताकने लगे. सबने उनसे झूठ बोला था की प्रधानी तो जैसे उनके लिए रखी हुई है. यहाँ तो पहले राउंड में विकास ने टक्कर में होने का अनुमान लगाया था. उनका कहीं जिक्र नहीं और जिसके बारे में सोचा न था वह सबसे आगे. दिमाग चकरा गया विकास का. उसी समय गोकुल शाह आकर सामने की कुर्सी पर बैठ गए. विकास की दुःखती राग पर हाथ रखते हुए बोले “ये सुकून की बात है विकास बाबू कि टक्कर में बस आप ही हैं. अगले राउंड में तस्वीर साफ़ हो जायेगी. चिंता न करें. ” विकास ने आँखें उठाकर गोकुल शाह को देखा. मन हुआ कि वहीं के वहीं उठाकर पटक दें लेकिन सब्र कर गए और न चाहते हुए भी सिर हिला दिया. गोकुल शाह ने भर नजर विकास चन्द्र और उनके सिपहसालारों को देखा और इत्मीनन की साँस के साथ विजयी मुस्कान छेदी गोया बटेसर की बहु की जगह वह खुद विकास चन्द्र से आगे चल रहे हों. पाँच साल पहले मिली हार के जख्म पर जनता ने मलहम लगा दिया हो. हालाँकि बटेसर की बहू ने जब प्रधान पद के लिए नमाँकन किया था तो दुरादुराने वालों में गोकुल शाह भी शामिल थे. तब उनहोंने सोचा भी नहीं था कि उनके हलवाहे की बहू के पीछे गाँव की वही जनता खडी हो जायेगी जिसने पाँच साल पहले उन्हें प्रधानी के आसान से उतार दिया था. लेकिन उन्हें इस बात की खुशी हो रही थी कि उनकी गद्दी हथियाने वाला विकास चन्द्र वोटिंग में पीछे चल रहा है. कुर्सी से उठाते हुए बोले, “भई वक्त कब किस करवट बदलेगा कोई नहीं जानता. ” कौन जानता था कि मेरा हलवाहा ही एक दिन गाँव पर राज करेगा’ गोकुल शाह ने बात ऐसे कही कि उन्हें बटेसर की बहू के आगे होने का दुःख है लेकिन उनका तीर सही निशाने पर जा लगा. विकास बौखला से गए.
उसी समय लाउडस्पीकर से एनउंसमेंट हुआ, दूसरे राउंड की मतगणन के बाद विकास चन्द्र अपने निकटतम प्रतिद्वंदी सोना देवी से पचहत्तर वोटों से पीछे चल रहे हैं. सिपहसालारों के पसीने छूट गए. अचरज से सबने मुँह पर हाथ रख लिया. लेकिन विकास चन्द्र ने जनता के फैसले को पढ़ लिया. वह उठे और घर की ओर पैदल ही चल पड़े. सिपहसालारों ने रोकने की कोशिश की. दिलासा दिलान चाहा कि अभी तो डो राउंड की काउंटिंग बाक़ी है. फाईनल विनर वही होंगे. क्योंकि बाक़ी कोई प्रत्याशी आसपास भी नहीं है. लेकिन विकास को अपनी हार साफ़ दिखाई दे रही थी. और उसकी वजह भी वो समझ रहे थे. उनहोंने किसी के कहे का कोई जवाब नहीं दिया. बस चलते चले गए.
विकास को चुनव के समय से ही शक घर कर गया था. घर-घर हाथ जोड़े खड़े विकास को लोगों से दिल खोलकर आश्वासन भी नहीं मिला था. मतदान के दिन लोगों के व्यवहार ने उनके शक को गहरा दिया था. प्रचार में पानी की तरह पैसा बहा दिया विकास ने लेकिन दिल को तसल्ली नहीं मिली कि लोग उनके पक्श में वोट डालेंगे. आज वह सच साबित हो गया.
जनता ने उसके पक्श में फैसले की मुहर लगा दी. जिसका इस पूरे अभियान में कोई जिक्र नहीं था. पैसे वालों और ऊँची रसूख वालों को धता बताकर एक ऐसे इंसान के सिर पर सेहरा सजा दिया था जो चलताऊ परिभाशा में काबिल न सही कम से कम चालाक तो नहीं है. चलते-चलते स्वतः स्फूर्त बटेसर के घर तक पहुँच गए थे विकास चन्द्र. लंबी साँस छोडी और गाँव की नई मुखिया के सचिवालय को थोड़ी देर तक निहारते रहे. सोचते रहे. काश कि ग्राम प्रधान के फ़र्ज़ को ईमानदारी से निभाया होता. मनरेगा के मजदूरों को एक-एक दिन की मजदूरी के लिए तरसाया न होता. राशन वितरण और आवास आवंटन में बीपीएल परिवारों का हक न मारा होता. सीसी रोड से हर तोले को जोड़ दिया होता. पानी के लिए दरवाजे-दरवाजे भटकने वालों के लिए हैंडपंप लगवा दिया होता. स्कूली बच्चों के दोपहर के भोजन में कटौती न करता. शिक्शामित्रों और पंचायत मित्रों को मानदेय के लिए रुलाया न होता. . . मगर अब पछताए हॉट क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत. इसी जनता जनर्दन ने उसे सिर पर चढ़ाया था, इसी ने पैरों से झटक दिया. वह भूल गया था की प्रधानी का ताज उसकी नहीं, जनता की जागीर है. लोकतन्त्र की इस ताकत के आगे सिर झुकाने के सिवा अब चारा ही क्या बचा था. विकास मुड़े और पश्चाताप का भाव लिए अपने घर की ओर चल पड़े.

© 2012 Ranvijay Singh Satyaketu; Licensee Argalaa Magazine.

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